नमस्कार दोस्तों, मैं हूं गुरु जी सुनील चौधरी। आज की इस पोस्ट में हम बात करेंगे उस मुद्दे पर जिसे हाल ही में पत्रकार रविश कुमार ने फिर से उठाया है। उनका आरोप है कि गोदी मीडिया दबाव में है और क्रिकेट मैच के बाद दोनों टीमों के कप्तानों का हाथ न मिलाना, राष्ट्रवाद की नाटकबाजी है।
लेकिन असली सच क्या है? क्या मीडिया सचमुच दबाव में है? क्या राष्ट्रवाद खेल से अलग रहना चाहिए? और क्या रविश कुमार हमेशा ही मोदी विरोध की धुन में सच को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं? आइए विस्तार से समझते हैं।
हाथ मिलाने का विवाद – मीडिया की हकीकत
क्रिकेट मैच के बाद हाथ मिलाना एक गुडविल जेस्चर है, यह कोई मैंडेटरी रूल नहीं है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मैच रेफरी ने साफ तौर पर कहा था कि दोनों कप्तान हाथ न मिलाएं। यानी यह निर्णय किसी राजनीतिक दबाव या मीडिया की चाल से नहीं बल्कि खेल के आधिकारिक नियम और परिस्थिति के तहत लिया गया।
फिर भी रविश कुमार ने इसे राष्ट्रवाद की नाटकबाजी बताकर मुद्दा खड़ा किया। सवाल यह है कि जब नियम खुद खेल प्रबंधन ने तय किए थे तो इसमें मीडिया या सरकार को क्यों घसीटना?
गोदी मीडिया का दबाव – सच या भ्रम?
रविश कुमार अक्सर कहते हैं कि भारत की मीडिया “गोदी मीडिया” बन गई है और सिर्फ सरकार के दबाव में काम करती है।
लेकिन असली सच यह है कि मीडिया पर दबाव सिर्फ राजनीतिक नहीं होता।
विज्ञापन का दबाव – चैनल्स को विज्ञापनदाता की पसंद का ख्याल रखना होता है।
दर्शकों की अपेक्षाओं का दबाव – अगर जनता किसी मुद्दे पर गुस्से में है, तो मीडिया उसी टोन में कवरेज करती है।
राजनीतिक माहौल का दबाव – यह तो हर देश में होता है।
लेकिन रविश कुमार इन दबावों को सिर्फ एक ही दिशा में दिखाते हैं – सरकार का दबाव। वे भूल जाते हैं कि कभी-कभी मीडिया जनता की भावनाओं को भी आवाज देती है।
राष्ट्रवाद और खेल – अलग या साथ?
रविश कुमार का तर्क है कि खेल और राजनीति अलग रहनी चाहिए। यह बात आंशिक रूप से सही है, लेकिन क्या हमेशा संभव है?
जब आतंकवादी हमलों में निर्दोष नागरिक और जवान शहीद होते हैं, तो राष्ट्रवाद और जनता की भावनाएं खेल से अलग नहीं रह सकतीं। खिलाड़ी और कप्तान अगर उस दुख में शामिल होकर कोई निर्णय लेते हैं, तो इसे सिर्फ राजनीतिक तमाशा कहना अनुचित है।
राष्ट्रवाद सिर्फ राजनीति का हिस्सा नहीं है, यह जनता की आत्मा है।
रविश कुमार का डबल स्टैंडर्ड
रविश कुमार अकसर मीडिया पर आरोप लगाते हैं कि वह कभी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती है और कभी चुप हो जाती है। लेकिन असल में उनका अपना नैरेटिव ही पक्षपातपूर्ण है।
जब मुद्दा मोदी सरकार के खिलाफ जाता है तो रविश कुमार की आवाज बुलंद होती है।
लेकिन जब वही मुद्दा जनता की भावनाओं, सेना या सुरक्षा से जुड़ा होता है, तो वे उसे नाटकबाजी करार देते हैं।
राहुल गांधी पर उनका रवैया बिल्कुल अलग है – मानो वे उनके दत्तक पुत्र हों।
यानी रविश कुमार की पत्रकारिता में न्यूट्रलिटी कम और प्रोपेगेंडा ज्यादा है।
मीडिया की जिम्मेदारी और जनता की ताकत
सिर्फ मीडिया ही जिम्मेदार नहीं है।
BCCI, रेफरी, ICC, सरकार और खिलाड़ी – सबकी अपनी-अपनी जिम्मेदारी होती है।
मीडिया अगर जनता की भावनाओं को दिखाती है तो यह गलत नहीं है।
असली सवाल यह है कि जनता खुद कितनी सजग है।
अगर हम चाहते हैं कि मीडिया सच बोले और संतुलित ढंग से काम करे, तो हमें खुद सवाल पूछने होंगे और प्रोपेगेंडा को पहचानना होगा।
निष्कर्ष – रविश कुमार का सच और प्रोपेगेंडा
रविश कुमार ने अपने दर्शकों के सामने हमेशा एक मोदी विरोधी नैरेटिव रखा है। उनका झुकाव साफ दिखता है और यही कारण है कि वे हर मुद्दे को सरकार और गोदी मीडिया के खिलाफ मोड़ने की कोशिश करते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि –
हर मुद्दा राजनीतिक नहीं होता।
राष्ट्रवाद सिर्फ दिखावा नहीं, बल्कि जनता की भावनाओं की अभिव्यक्ति है।
मीडिया अगर जनता की भावनाओं को आवाज दे रही है, तो इसे दबाव नहीं, बल्कि जिम्मेदारी कहा जाना चाहिए।
दोस्तों, हमें समझना होगा कि पत्रकारिता और प्रोपेगेंडा में फर्क है। हमें सवाल पूछने चाहिए, सजग रहना चाहिए और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
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