प्रस्तावना
पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों में सैन्य तख़्तापलट (Coup) आम बात रही है। पाकिस्तान में लगभग हर 10 साल में आर्मी जनरल सत्ता पर कब्ज़ा कर लेता है। बांग्लादेश में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद कई बार सेना ने सरकार गिराई। म्यांमार आज भी मिलिट्री के कब्ज़े में है।
लेकिन भारत का इतिहास बिल्कुल अलग है। यहां युद्ध भी हुए, आर्थिक संकट भी आए, नेताओं की हत्या भी हुई। बावजूद इसके, भारत में कभी सेना ने सत्ता पर कब्ज़ा नहीं किया। यह एक बड़ा रहस्य है, और इसी पर आज हम विस्तार से चर्चा करेंगे।
पड़ोसी देशों का हाल बनाम भारत का अनुभव
पाकिस्तान – 1947 के बाद वहां नेता कमजोर और सेना ताकतवर रही। आर्मी खुद को देश का तारणहार मान बैठी और बार-बार लोकतंत्र को तोड़ दिया। नतीजा आतंकवाद, कंगाली और कर्ज में डूबा पाकिस्तान।
बांग्लादेश – शेख मुजीबुर रहमान के बाद वहां सत्ता संघर्ष का दौर शुरू हुआ और सेना लगातार हस्तक्षेप करती रही।
म्यांमार – आज भी मिलिट्री शासन है। वहां लोकतंत्र कभी पनप ही नहीं पाया।
भारत – इसके बिल्कुल उलट, यहां नेताओं ने शुरुआत से ही सेना को राजनीति और धार्मिक झगड़ों से दूर रखा। यही भारत की लोकतांत्रिक मजबूती का आधार बना।
1947 के बाद भारत का बड़ा फैसला – सेना को राजनीति से अलग रखना
आज़ादी के समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी बंटी हुई थी। सिपाही अपनी रेजीमेंट या धर्म के प्रति वफादार थे, भारत नाम के राष्ट्र के प्रति नहीं।
पंजाब दंगों को रोकने के लिए जो बाउंड्री फोर्स बनी, वहां भी सैनिकों ने पहले मज़हब देखा, फिर वर्दी।
इसे देखकर भारत के नेताओं ने ठान लिया कि फौज को हमेशा राजनीति और धार्मिक विवादों से दूर रखा जाएगा।
सेना कैंटोनमेंट में रहेगी और सत्ता संसद में। यही भारत की पहली लक्ष्मण रेखा बनी।
“बंदूक हमेशा कलम के नीचे रहेगी” – भारत का मूल मंत्र
1948 में हैदराबाद पर हुए ऑपरेशन पोलो के दौरान सरदार पटेल ने साफ कर दिया कि सेना आदेश मानेगी, फैसला राजनीति करेगी।
1950 में आगे चलकर भारत ने ढांचा बदल दिया –
कमांडर-इन-चीफ का पद खत्म किया गया।
तीनों सेनाओं के अलग-अलग चीफ बनाए गए।
बजट और प्रमोशन का कंट्रोल डिफेंस सेक्रेटरी के हाथ में गया, यानी एक सिविलियन ऑफिसर जनरल से ऊपर बैठा।
इस व्यवस्था ने तय कर दिया कि भारत में बंदूक हमेशा कलम के नीचे रहेगी।
भारतीय सेना और लोकतंत्र के ऐतिहासिक उदाहरण
जनरल के.एस. थिमैया – रक्षा मंत्री से मतभेद हुआ तो इस्तीफा दिया, लेकिन तख्तापलट नहीं किया।
फील्ड मार्शल सैम मैनिकशॉ – इंदिरा गांधी से साफ कहा कि “युद्ध लड़ना है या नहीं, यह राजनीति का फैसला होगा, लेकिन युद्ध कैसे और कब लड़ना है यह सेना तय करेगी।”
इन दोनों उदाहरणों से साफ होता है कि भारतीय सेना आंख मूंदकर गुलामी नहीं करती, बल्कि राष्ट्र और संविधान के प्रति निष्ठा सबसे ऊपर रखती है।
सनातन सैन्य संस्कृति बनाम इस्लामिक रिपब्लिक्स की थ्योरी
पाकिस्तान की मिलिट्री थ्योरी कहती है कि उनकी फौज इस्लामिक है, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करती, इसलिए कूप करती है।
लेकिन इतिहास बताता है कि नतीजा केवल तबाही, गरीबी और अस्थिरता रहा।
इसके विपरीत भारत की फौज सनातनी इथोज वाली है।
अनुशासन मानना
संविधान का पालन करना
जनता के जनादेश को सर्वोपरि मानना
यही वजह है कि भारत की फौज दुनिया की सबसे लोकतांत्रिक और संवैधानिक सेनाओं में गिनी जाती है।
निष्कर्ष – भारत में तख़्तापलट क्यों नहीं हुआ?
भारत में कभी सैन्य तख़्तापलट नहीं हुआ क्योंकि –
यहां लोकतंत्र किताबों में नहीं, बल्कि खून में बहता है।
यहां नेताओं ने शुरू से ही सेना को राजनीति से अलग रखा।
यहां फौज की निष्ठा सत्ता की लालसा नहीं, बल्कि राष्ट्र और संविधान के प्रति है।
और सबसे बड़ा कारण – सनातन की आत्मा, जिसने “राष्ट्र धर्म” को सर्वोपरि माना।
अंतिम शब्द
भारत माता की यही सबसे बड़ी शक्ति है कि यहां लोकतंत्र अटूट है। हमारे सैनिकों की बंदूक हमेशा देश की सीमाओं की रक्षा के लिए उठती है, न कि सत्ता हथियाने के लिए। यही कारण है कि भारत आज दुनिया के सबसे मजबूत लोकतांत्रिक स्तंभों में खड़ा है।
जय श्री राम। वंदे मातरम। भारत माता की जय।
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